ऋषि, महर्षि, मुनि, साधु और संत में क्या अंतर है आज का हमारा ये लेख इसी बात से जुड़ा है।
भारत एक ऐसा देश है जहां प्राचीन समय हो या आज का समय हो ऋषि-मुनियों, साधु- संतो को एक विशेष महत्व दिया जाता है क्योंकि ये हमारे समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते हैं। ऋषि-मुनि अपने ज्ञान और तप के बल पर समाज में कल्याण का कार्य करते थे और लोगों को उनकी समस्याओं से मुक्ति दिलाते थे। आज भी तीर्थ स्थल, जंगलो और पहाड़ों में कई साधु-संत देखने को मिल जायेंगे।
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लेकिन क्या आप जानते हैं साधु, संत, ऋषि, महर्षि आदि ये सब अलग-अलग होते हैं। ज्यादातर लोग यहीं मानते हैं कि ये सब एक ही होते है। लेकिन ऐसा नहीं है ये सभी एक दूसरे से भिन्न हैं। तो आइए आज हम इस लेख के जरिए आपको बताते हैं कि ऋषि, महर्षि, मुनि, साधु और संत में क्या अंतर है और ये सब एक दूूसरे से कैसे अलग हैं।
ऋषि कौन होते हैं
ऋषि वैदिक परंपरा से लिया गया एक शब्द है। वैदिक ऋचाओं की रचना करने वालों को ऋषि कहा जाता है। ऋषि शब्द “ऋष” मूल से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ देखना होता है। अगर एक आसान शब्द में कहे तो ऋषि वे होते हैं जो को सैकड़ों सालों के तप या ध्यान के कारण सीखने और समझने के उच्च स्तर को प्राप्त करते है।
वैदिक काल में सभी ऋषि गृहस्थ आश्रम से आते थे। ऋषि पर किसी तरह का कोई रोक टोक नहीं होता। उनमें क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या आदि पर कोई रोक लगाने और ना ही किसी भी तरह का संयम रखने का उल्लेख नहीं होता है।
ऋषि अपने योग के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त कर सकते थे और अपने सभी शिष्यों को आत्मज्ञान की प्राप्ति करने के लिए मार्ग बताते थे। वे भौतिक पदार्थ के साथ-साथ उसके पीछे छिपी ऊर्जा को भी देखने में सक्षम हुआ करते थे। हमारे पुराणों में ऐसे ही सप्त ऋषि का उल्लेख मिलता है, जो केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ तथा भृगु हैं।
ऋषि सात प्रकार के माने गए हैं—
महर्षि – अर्थात महान ऋषि जैसे: वेदव्यास, वाल्मिकि
परमर्षि – अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋषि जैसे: भेल
देवर्षि – अर्थात ऐसे देव जो ऋषि भी है जैसे: नारद
ब्रह्मर्षि – अर्थात जिन्होंने सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्य को देखा हो जैसे: ब्रह्मर्षी दधीची, वशिष्ठ
श्रुतर्षि – अर्थात जो श्रुति और स्मृति शास्त्र में पारंगत हो जैसे सुश्रुत
राजर्षि – अर्थात राजा जो ऋषि बन गया हो जैसे ऋतुपर्ण
कांडर्षि – वेदों की एक शाखा, कांड या विद्या का प्रतिपादक जैसे जैमिनि
मुनि कौन होते हैं
मुनि भी एक तरह के ऋषि ही होते हैं लेकिन उनमें राग द्वेष की कमी होती थी। ये वो लोग होते है जिनका मन दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जिनमे सुख की कोई इच्छा नहीं होती और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निस्चल बुद्धि वाले ही मुनि कहलाते हैं।
मुनि शब्द का अर्थ है मौन अर्थात शांति यानि वो इंसान जो बहुत कम बोलता है। मुनि मौन रहने की शपथ लेते हैं और वेदों और ग्रंथों द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं। पहले के समय में मौन रहने को एक तपस्या और साधना माना जाता था। जो ऋषि मौन रहकर तप और साधना किया करते थे वहीं मुनि कहलाए है। मुनि शब्द का चित्र, मन और तन से गहरा नाता है। ये तीनों ही शब्द मंत्र और तंत्र से सम्बन्ध रखते हैं।
कुछ ऐसे ऋषियों को मुनि का दर्जा प्राप्त था, जो ईश्वर का जप करते थे और नारायण का ध्यान करते थे, जैसे कि नारद मुनि। मुनि मंत्रों को जपते हैं और अपने ज्ञान से एक व्यापर भंडार की उत्पत्ति करते हैं। मुनि शास्त्रों की रचना करते हैं और समाज के कल्याण के लिए रास्ते दिखाते हैं। मौन साधना के साथ-साथ जो व्यक्ति एक बार भोजन करता हो और 28 गुणों से युक्त हो, वही व्यक्ति मुनि कहलाता था।
साधु कौन होते हैं
साधु वह व्यक्ति होता है जो साधना करता है। साधु होने के लिए कोई विद्वान होने की आवश्यकता नहीं होती साधु कोई भी बन सकता है। उसके लिए जरूरत है साधना करने की। जो व्यक्ति किसी भी विषय को साधता है किसी भी विषय के बारे में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करता है वो साधु कहलाता है।
कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। इसका कारण यह है कि वह व्यक्ति सकारात्मक साधना करता है, सीधा, सरल और सकारात्मक सोच रखने वाला हो जाता है, समाज में लोगो की भलाई का कार्य करता है।
अगर साधारण शब्दों में कहे तो साध का अर्थ होता है ” सीधा और दुष्टता से हीन”। साधु का संस्कृत में अर्थ है सज्जन व्यक्ति और इसका एक सबसे उत्तम अर्थ यह भी है 6 विकार यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग करने वाला। जो इन सभी विकारों से खत्म कर इसका त्याग कर अपना जीवन जीता है वही साधु कहलाता है।
संत कौन होते हैं
संत शब्द संस्कृत के एक शब्द शांत से लिया गया है। संत उस व्यक्ति को कहा जाता है , जो सत्य का आचरण करता है, जो सदैव सत्य बोलता हो और आत्मज्ञानी होता है। जैसे- संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास।
जो व्यक्ति ईश्वर का भक्त हो या धार्मिक पुरुष हो वो भी संत ही कहलाता हैं। हर कोई संत नहीं बन सकता क्योंकि संत बनने के लिए अपने घर-परिवार को त्यागकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए चले जाना होता हैं।
संत बनने के लिए अपनी संपत्ति का त्याग करना होता है, गृहस्थ जीवन का त्याग करना होता है या अविवाहित रह सकते है। समाज और सांसारिक जीवन का त्याग करना होता है और योग ध्यान का अभ्यास करते हुए ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाना होता है।
जो व्यक्ति संसार और अध्यात्म के बीच संतुलन बना लेता है, वही संत कहलाता हैं। संत के अंदर सहजता और शांत स्वभाव बसता है। संत होना एक तरह का गुण भी है और योग्यता भी है।
नतीजा
ऋषि, मुनि, साधु या संत ये सभी धर्म के प्रति समर्पित होते हैं। ये सांसारिक मोह- माया दूर होते है और समाज कल्याण के लिए निरंतर अपने ज्ञान का इस्तेमाल करते रहते है और इससे दूसरो का कल्याण भी करते हैं और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हेतु तपस्या, साधना, मनन आदि करते रहते हैं।